Wednesday, September 25, 2013

हर रोज़ अखबार में स्त्रियों पर बढ़ते अत्याचार चाहे फिर वो शारीरिक हो अथवा मानसिक पढने मिल ही जाते  है। हद तो तब होती है जब ये पढने मिले की हमारे देश की पोलिस, थाने के दायरे के फेर में इनकी शिकायतों का या तो दर्ज ही नहीं करती या  दर्ज कर भी लिया तो उस के खिलाफ़ किसी भी तरह का कदम उठाने से पहले ना जाने कितने दिन बरबाद कर देती है। और इसी देरी का नतीजा ये निकलता है की कई बार ऐसे हादसे हो जाते है जिन्हें वक़्त रहते रोका जा सकता था।

पिछले कुछ दिनों में जो वारदातें हुयी थी उन्होंने ना केवल प्रशाशन की कलई खोल के रख दी अपितु मुझे ये सोचने पर भी मजबूर कर दिया की ये हम ये किस तरह का समाज निर्माण कर रहे है। जिस समाज में स्त्री को दुर्गा और काली के रूप में पूजा जाता है वहीं वो स्त्री अपने घर से बाहर एक कदम रखने से पहले भी दस बार सोचने को मजबूर हो जाती है।   

आज ही एक और लेख पढने को मिला
http://in.news.yahoo.com/one-rescue-and-the-multiple-existential-crises-of-policemen-in-palwal-071539504.html
पढ़ा तो लगा की हम आज भी किसी मध्य कालीन राज्य का हिस्सा है जहाँ गुलामो की खरीद फरोख्त की जाती थी।

काफी अरसे से इक गुबार से भर रहा था अन्दर ही अन्दर आज शब्दों में ढला है, शायद कोई जुड़ सके इससे 


मंज़र सारे खो गए बस सहरा सा मिला
उसकी आँखों में वक़्त ठहरा सा मिला 

वो डरी सी थी, सहमी सी थी
उसकी रूह पर ज़ख्म गहरा सा मिला

वो अपने ही आँगन में खेलने से डरती है
उसका खुद पर, भरोसा बिखरा सा मिला

वक़्त के साथ जिस्म से निशान मिट गए
मगर ज़ेहन पर इक घाव  हरा सा मिला

कोई शक्ल नहीं थी, भीड़ का हर शख्स
उसे, उसका जिस्म टटोलता सा मिला

हज़ार परदों, हिजाबों में खुद को छिपाया
फिर भी उसका ही आँचल मैला सा मिला

बहुत रौशनी कर गया आखिरी पहर में
'प्यार', जो चराग सुबह बुझा सा मिला

~ प्यार २५/०९/२०१३

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